Sunday, December 28, 2008

लोकतंत्र नहीं, अलगाववाद जीता, पाकिस्तान जीता.

पिछले दिनों जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनाव हुऐ और सभी सत्तासी सीटों के लिये नतीजे या रुझान अब तक बाहर आ गये हैं. कांग्रेस, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, बीजेपी वहां मुख्य पार्टियां हैं. 
सभी पार्टियां आज सुबह से नतीजों के अनुसार प्रतिक्रिया दे रहीं हैं और इसी सिलसिले में सोनिया और मनमोहन जी ने कहा कि जम्मू कश्मीर में सफल चुनाव हुए हैं, लोकतंत्र की जीत हुई है और हमारे पङोसियों को इससे सबक लेना चाहिये. 

लेकिन मैं इस बात से इत्तिफाक नहीं रखता कि जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र जीता है. चुनाव सफलता पूर्वक होने या ५० या ६० प्रतिशत लोगों के मतदान करने से लोकतंत्र नहीं जीतता.
 
वहां जो नतीजे आये हैं उनमें जम्मू और कश्मीर के बीच की राजनैतिक दूरी साफ झलकती है.  बीजेपी इस बार पिछले चुनाव के मुकाबले १० सीटों के फायदे में है और जम्मू क्षेत्र में उनका परचम जोरदार लहराया है. अमरनाथ मुद्दे के बाद कश्मीर में अलगाववाद या सच कहें तो पाकिस्तानवाद की आग दो महीनों तक जली और सारे देश ने देखी और उसका प्रतिबिंब आज के नतीजो में साफ दिखायी दे रहा है. जम्मू में बीजेपी पिछले चुनाव की १ के मुकाबले ११ होने वाली है, जाहिर है कि जम्मू की जनता ने बीजेपी को एकमत होके चुना है.

कश्मीर में अमरनाथ का विवाद कैसे हिन्दु मुस्लिम मुद्द्दा बना और उसके बाद कैसे कश्मीर में अलगाववादियों ने उसका पूरा फायदा उठाया सबने देखा. कश्मीर में खुले आम पाकिस्तान समर्थक नारे लगे, पाकिस्तान का झंडा लहराया और लोगों ने पाकिस्तान सीमा की और मार्च किया. अलगाववादी नेताओ के सपने हकीकत के नजदीक पहुंचने लगे. 

जाहिर है कि जिस आवाम ने पाकिस्तान के नाम के नारे लगाये उसने भी वोट डाले और किस मुद्दे पर डाले ये बताने की जरुरत नहीं. आज जब नतीजे आये हैं हर पार्टी के नेता ने जो बात सबसे ज्यादा जोर देकर कही है कि बीजेपी के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा. बीजेपी यानि कि वो पार्टी जिसको जम्मू के लोगो ने वोट दिये, यानि वो जिनमें हिंदू संख्या मे ज्यादा है, जो पाकिस्तान समर्थक नहीं हैं. 

कांग्रेस अगर ये बात करे तो समझ में आता है कि बीजेपी के साथ केंद्र या अन्य राज्यों में मतभेद उसे साथ नहीं जाने दे सकते. लेकिन बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने ऐसी क्या मजबूरी है? बीजेपी पिछली बार तो १ सीट के साथ अस्तित्वहीन सी थी तो उनसे क्या मतभेद हैं?? बीजेपी के साथ केंद्र में सत्ता की हिस्सेदारी करते समय फ़ारूख अब्दुल्ला को कोई दिक्कत नहीं थी तो अब क्या बात है? शायद ये कि अभी अलगाववाद हवा कश्मीर में अब ज्यादा तेज बह रही है और ऐसे में बीजेपी का तो नाम भी लेना पाप है. 
क्या राज्य की सरकार में जम्मू क्षेत्र की हिस्सेदारी कतई संभव नहीं है? सरकार में शामिल होने के लिये आपको या तो अलगाववादी होना चाहिये या बहरा होना चाहिये. 

जाहिर है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान समर्थक अलगाववादियों के साथ खुलेआम या चोरीछुपे हाथ मिला रखे हैं वो उस पार्टी के साथ कैसे बैठ सकते हैं जिसको जम्मू के हिदुओ ने वोट दिये हैं. 
हो सकता है कि कुछ पढने वालों को इस बात पर आपत्ति हो कि मैं गैर बीजेपी पर्टियों पर अलगाववादियों स हाथ मिलाने का आरोप लगा रहा हूं, लेकिन अगर आप देश की अखंडता पर सवाल उठाने वालों का विरोध नहीं करते या चुप भी रहते हैं तो आप उनके हाथ मजबूत कर रहे हैं, चाहे वो कश्मीर मे हों या मुंबई में, और कांग्रेस तो दोनो जगह इस सवाल पे चुप नजर आती है.

कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियां तो जाहिर है ऐसे लोगों से भरी पङी होंगी, लेकिन कांग्रेस जिसे बाकी देश में भी लोगों को जवाब देना है उसके कश्मीरी नेता गुलाम नवी आजाद ने भी आज टीवी पर बयान दिया कि "जम्मू के हमारे भाइयों ने बीजेपी को वोट देकर अपना वोट जाया किया है". 

जरा सोनिया और मनमोहन जी सुनें अपने नेता का बयान, ये सुनने के बाद क्या वो ये कहेगे कि लोकतंत्र जीता है? सत्तासी में से जम्मू की ११ को छोङ दें तो ज्यादातर सीटों पर वो जीते हैं जो भारत की अखंडता के सवाल पर बाकी देश से अलग खङे नजर आते हैं, जिनके लिये कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं बहस का विषय हो सकता है.   

आज आप कश्मीर कि ओर देखें तो इन लोगों में काग्रेस भी खङी नजर आ रही है और सोनिया, मनमोहन भी. अगर कोई कहे कि कश्मीर में लोकतंत्र जीता है तो ऐसी जीत में भारत की संप्रुभता की हार है. 

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Thursday, December 25, 2008

यूपी के हैं, आदत पङी हैं.

कल रात यूपी से जो खबर आयी मुझे और मुझ जैसे बहुतों को यहां बम्बई मे शर्मसार कर गयी. शुक्र है कि आज का दिन औफिस मे व्यस्तता से भरा था, मन में डर था कि कहीं से कोई आयेगा और मुख्यमंत्री के जन्मदिन के चन्दे का जिक्र कर मुझे गाली दे जायेगा. 
पीडब्लयूडी के अभियंता मनोज गुप्ता की मौत से ज्यादा दुख इस बात का हुआ कि इस हत्या का विरोध करने वालों मे सिर्फ उसी तरह के लोग शामिल हैं जिन्होने ये काम किया है. मायावती के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले आदरणीय मुलायम और अमर सिंघ जी का खुद का इतिहास ऐसी ही अपराध गाथाओं से भरा पङा है. 

मायावती को केवल साल भर पैहले ही यूपी की जनता ने सिर आंखो पे बैठाया था.  कुछ दिन तक मैं भी सचमुच राहत महसूस करने की खुशफहमी में जीता रहा, लेकिन मैडम के जन्मदिन के जश्न की तैयारी ने सारा भ्रम तोङ दिया.
हमारी चुनी हुई सरकार ही साल बीतते बीतते जोंक बन चुकी है तो यूपी की जनता किस ओर देखे ?  क्या कोई और विकल्प है ?  नहीं है शायद... करोङो की जनता में एक भी ऐसा नेता या गैर राजनैतिक व्यक्तित्व ऐसा नहीं है जो प्रदेश की विधानसभा में बैठे पक्ष विपक्ष से जरा सा भी सच्चा हो.
मुम्बई में पिछले माह हुए हमलों के बाद आम जनता का जो गुस्सा सङक पे नजर आया वैसा कुछ भी यूपी मे न तो नजर आया और न ही उसकी कोई संभावना है.  आज टीवी पर विरोध करने वाले या तो सब यादव उपनाम वाले होंगे या किसी और पार्टी का झंडा पकङे होंगे. 
दशकों तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश में एक ईमानदार नेता नहीं है. हर बार जात और बिरादरी के नाम पे वोट डालने वाले और अपराधी से नेता बने राक्षसो को चुनने में गर्व महसूस करने वाले प्रदेश के लोगों को अगर ये सब भुगतना पङता है तो हर्ज क्या है. जो हुआ है अपने लिये यूपी ने ही चुना है. जो सबसे बुरा लक्षण दिखायी देता है कि विरोध करने वाले भ्रष्ट सिस्टम के बजाय मायावती के विरोधी ज्यादा हैं. इनको अगर किसी बात की फिक्र है तो बस अपनी बारी के आने की.
 
और कोई बङी बात नहीं कि कल इनकी बारी आ भी जायेगी क्योंकि यूपी के आम लोगों को जगाने के लिये एक हत्या तो बहुत कम है, ये सब तो मामूली बात है. ज्यादातर लोगों को चंदा देने की आदत पङ चुकी है.

  

Wednesday, December 10, 2008

एक बार और झंड कर दो यार !!

अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि ५ राज्यों मे चुनाव हुए और उनके ये नतीजे सामने आये हैं. पिछले साल भी उत्तर प्रदेश के नतीजो ने ऐसे ही चौंका दिया था जब मायावती ने मुलायम कि पुंगी बजा दी थी. उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव से ठीक पहले स्थानीय निकाय के चुनाव हुए थे और उसमें मुलायम सिंह की पार्टी को अच्छा प्रतिसाद मिला था. लेकिन कुछ ही महिनों के बाद जब विधान सभा चुनाव के नतीजे आये तो मुलायम सिंह की धोती हवा में उङ गयी. साथ ही साथ बीजेपी और कांग्रेस भी साफ हो गये. स्थानीय निकाय और विधान सभा दोनों ही में लोकल मुद्दे हावी रहते हैं इसलिये किसी को उम्मीद न थी कि नतीजे स्थानीय निकाय से ज्यादा अलग आयेंगे लेकिन जनता ने चौंकाने वाला फैसला सुनाया.
ऐसा ही कुछ इस बार हुआ है, एक के बाद आतंकवादी हमलों के बाद उम्मीद थी कि जनता कांग्रेस के पिछवाङे ऐसी लात मारेगी की आदरणीय सोनिया जी औंधे मुंह पङी दिखायी देंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, दिल्ली की पढी लिखी जनता ने भी कांग्रेस को खारिज नहीं किया. अपनी जीत पे कांग्रेस मे भी बहुत सारे नालायकों को शायद "अबे अल्ला मेहरबान तो गधा दोबारा पहलवान" टाइप की फीलिंग हुई होगी.

बहुत ज्यादा नहीं तो फिर थोङे बहुत चौंकाने वाले नतीजे एमपी और छत्तीसगढ से भी आये, सत्ता के खिलाफ लोग वोट दें ऐसा बहुत लोगों को उम्मीद रही होगी लेकिन फिर से पुरानी सरकारों को चुन लिया लोगो नें. हां राजस्थान में जरुर लोगों की उम्मीद से मिलता हुआ नतीजा दिखा, महारानी से सचमुच लोग त्रस्त थे और जैसा मेरे राजस्थानी मित्रों से मैने सुना व्हिस्की के साथ सत्ता का नशा भी महारनी के खोपङे मे चढ गया था, सो जनता ने झंड कर दिया महारानी को. मिजोरम में मिजोरम नैशनल फ्रंट को नंगा कर दिया जनता ने. कांग्रेस बहुत खुश है इस अप्र्त्याशित जीत से.

अब सवाल ये है कि इन सेमीफाइनल नतीजों को आने वाले लोक सभा चुनावो का संकेत सचमुच माना जाये या नहीं ? अगर ये सेमीफाइनल था तो भईया कांग्रेसी खटमल तो बहुत खुश होंगे कि जनता अपने ही पिछवाङे का खून चूसने का लाईसेंस ५ साल के लिये फिर थमाने वाली है और बीजेपी का क्या ?? पता नहीं भाई, बहुत मायुस होंगे बेचारे. पीएम इन वेटिंग कहीं चूक न जायें, दोबारा अगले चुनाव तक इंतजार करने की इजाजत उम्र नहीं देगी.

तो क्या करेगे आडवाणी जी? मैं तो कहता हूं कि बस अपना पीएम इन वेटिंग का बिल्ला उतार के जेब में धर लो, कही न बन पाये पीएम तो खामखां लोग ताने मारेंगे और बुढापे में बवासीर की सी तकलीफ उनकी बाते सुन के ही महसूस करेंगे आप. आप बस इमानदारी से लगे रहो तैयारी में और भरोसा रखो जनता पे. अगर जनता ने फिर से चौंकाने वाले पैटर्न पे वोटिंग की तो आपकी ही बत्त्त्तीसी ही सबसे ज्यादा खिलखिलाती नजर आयेगी.
भगवान करे कि ऐसा ही हो, ५ साल होने आये यार अब मन हो रहा है ऐसा पीएम देखने का जो पजामे में नाङा बांधने से पहले किसी एक्स पीएम की बेवा से ना इजाजत ले.
हे जनता जनार्दन एक बार और झंड कर दो यार !!!!

Friday, December 5, 2008

महाराष्ट्र के कदम बिहार की तरफ

पिछले दिनो मुम्बई मे हुए हादसों के बाद महाराष्ट्र की राजनीति मे उठापटक की आंधी गयी. पाटिल और फिर देशमुख के जाने के बाद हर उस नेता के ख्वाबों मे मंत्रालय के सपने आने लगे होंगे जो कभी भी उन कुर्सियों के आस पास से भी गुजरा होगा.  खैर, इनके जाने के बाद आज शाम आखिर दोनों रिक्त पदों के लिये नाम कॉग्रेस आलाकमान के कमरे के बाहर आये, अशोक चव्हाण और छगन भुजबल. और इन नामों के साथ ही बाहर आ गया नारायण राणे का फ्रस्ट्रेशन. 
जिस छिछोरेपन के लिये जनता पिछले दिनों से इन बेशर्मों के मुंह पे थूक रही थी उसका बेहतरीन मुजाहिरा इस लालची आदमी ने आज फिर पेश कर दिया. नारायण राणे ने कुछ समय पैहले अपने गले से शिव सेना का पट्टा उतार के सोनिया गांधी की खङाऊ को सिर पे रखा था सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिये. उनको समझ आ गया था कि बुढाते हुए बाल ठाकरे अपना उत्तराधिकारी उध्ध्व को ही बनायेंगे, और मुख्य मंत्री की कुर्सी पर अपनी भारी तशरीफ रखने की तमन्ना शिव सेना में रहते पुरी नहीं होगी
लेकिन आज शाम जब अशोक चव्हाण बाजी मार गये तो बेचारे राणे साहब को अपनी हालत धोबी के कुत्ते जैसी लगी होगी और मीडिया के सामने फ्रस्ट्रेशन बाहर आ गयी, आज इनको सोनिया जी पे भी भरोसा नहीं रहा और अशोक चव्हाण तो दुनिया का सबसे नकारा आदमी है. खैर ये सब तो नेता होने के नाते स्वाभाविक छिछोरापन है जाने दीजिये साहब. 
अब सवाल ये है कि राणे साब करेंगे क्या?? यूं दुत्कार दिये जाने के बाद पार्टी में तो रुकना इनके  स्वाभिमान को मंजूर न होगा, शिव सेना मे वापसी नहीं हो सकती. एन सी पी वाले भी घास नहीं डालेंगे. तो फिर ?? अपनी पार्टी बनायेंगे ? शायद हां, यही सबसे अच्छा संभव विकल्प यही है. अगर २०, २५ सीट मिल जायें तो सत्ता की धुरी मे आ जाने का अच्छा चांस बनता है. 

लेकिन अगर राणे साहब ने अपनी पार्टी बनायी तो उसक असर क्या होगा महाराष्ट्र की राजनीति मे ? ध्यान देने वाली बात ये है कि तस्वीर यहां बिलकुल उत्तर प्रदेश जैसी नजर आती है.
कॉग्रेस, बीजेपी,सपा, और बसपा जैसा उलझा हुआ समीकरण यहां भी. कॉग्रेस, बीजेपी, एनसीपी, शिव सेना और मनसा के बाद नारायण राणे की पार्टी. 
बिहार में भी बिलकुल ऐसे ही उलझे हुए समीकरण हैं. छोटी छोटी क्षेत्रीय पार्टियों ने स्पषट बहुमत वाली सरकार बनना बङा मुशकिल और हमेशा जुगाङ बाजों की पौ बारह.

अब महाराष्ट्र में जो आने वाले विधानसभा चुनाव होंगे (चाहे जब भी हो) वो आज तक के सबसे अलग चुनाव होंगे. शायद पहली बार ऐसा होगा जब इतनी सारी पार्टिया मैदान मे होंगी. और सब के सब धारदार खिलाङी. कोई आश्चर्य नहीं अगर यहां भी यूपी और बिहार की तरह ऐसे लोग सत्ता के लालच में साथ आ खङे हों जो आज एक दुसरे के खून के प्यासे हैं.  और अगर ये पार्टिया है तो इनको वोट भी मिलेंगे, इसलिये मुझे तो पुरा विश्वास है कि बिहार और यूपी की राजनीति की परछाई महाराष्ट्र में आने वाले चुनाव में नजर आयेगी.
नारायण राणे और राज ठाकरे जैसे लालची और कुर्सी के भूखे नेताओं के उठाये हुये ये कदम बिलकुल विनाषकारी हैं. जिन प्रदेशो को ये नेता आज हिकारत की नजर से देखते हैं इनके पीछे महाराष्ट्र की राजनीति ने उन प्रदेशों की ओर ही बढी है और निश्चित रूप से महाराष्ट्र भी.

देखना मेरे महारष्ट्रियन दोस्तों आपके और मेरे जैसे जाहिल भईयाओं के बीच का एक फर्क मुझे तो खत्म होता दिख रहा है. वैलकम टू द फ़ैमिली...

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