शहादत से ज्यादा हत्या है.
बुधवार की रात से मुम्बई में जो कुछ हुआ उसके बारे में लिखने की कोई इच्छा नहीं, बावजूद इसके कि उस दिन पेहली बार टी वी पर कुछ देख के इतना डर लगा, मेरे घर से एक घंटे की दूरी पर वो सब हुआ जो देख कर १०० करोङ लोगों का खून खौल उठा. डर, गुस्सा, आक्रोश, क्या कुछ नहीं मेह्सूस किया? लेकिन यहां लिखने की कोई इच्छा नही हुई. मेरे बाकी ब्लोगर भाई लोग ने काफी कुछ लिखा और मेरी भावनाऐं भी बहुत सारों की बातों मे निहित थीं.
शनिवार की रात साढे नौ बजे, जब मुठ्भेङ खत्म हो चुकी है, ज़िन्दगी ढर्रे पे आने लगी है, टीवी पे एक बीजेपी और एक काँग्रेस का नेता कुत्तों की तरह इस बात पे भौंक रहे है कि कल और आज सुबह के अखबारों में आतंकवाद के नाम पे दिल्ली की जनता से वोट हमने नहीं तुमने मांगे हैं.... भौं भौं भौं भौं .. हटाओ हरामजादों को मेरे सामने से.
एक और न्यूज चैनल पे कुछ ऐसा आ रहा है जो कि मुझे मजबूर कर रहा है यहां लिखने के लिये. हलक में लाउडस्पीकर फिट किये टीवी ऍकर लगातार चिल्ला रहा है कि "हम आपके लिये लाये हैं हेमंत करकरे की मौत का सच"
अगर इस रिपोर्ट पर भरोसा करुं तो हेमंत करकरे की मौत आतंकवादियों से लङते हुए नही हुई, बल्कि इस तरह हुई कि इसको सिर्फ एक बुरा इत्तिफाक ही कहा जा सकता है. आतंकवादियों को एक गाङी की जरुरत थी और सामने आ गये हेमंत करकरे इनके साथ एसीपी काम्ते और सालस्कर भी, तीनों एक ही गाङी में. उन्होने ताबङतोङ गोलियां चलायी और इन तीनों को मार के गाडी लेके भाग निकले आतंकी.
दुख ये है कि ये तीन काबिल अफसर सिर्फ इसलिये मर गये की हमारी पुलिस अब भी इतनी संसाधनहीन है कि उनके पास इतने भीषण हमले के समय मे भी ढंग के हथियार नहीं थे. बुलेट प्रूफ़ जैकेट्स ऐसी कि उनको भेद कर करकरे के शरीर मे ३ गोलियां दाखिल हो गयीं. निकम्मे और कब्र में पैर लटकाये नेताओं के पास बुलेट प्रूफ़ गाङियां भी है और गार्ड्स भी. लेकिन मुम्बई ऍ टी एस के चीफ़ और ऍ सी पी एक आतंकवादी की उन गोलियों के शिकार हो गये जो उनको मारने से ज्यादा गाङी हथियाने के लिये चलायी गयी थी. मारने वालों को आम जनता और एक आई पी एस अफसर को मारने मे कोई भी फर्क नही मैहसूस नही हुआ होगा. सिर्फ एक साधारण सी गाङी में बैठे तीन असाधरण सिपाही सिर्फ संसाधनहीनता के कारण मार दिये गये और हमें मजबूर होकर उनहें शहीद कैहना पङता है.
अगर इस रिपोर्ट पर भरोसा करुं तो हेमंत करकरे की मौत आतंकवादियों से लङते हुए नही हुई, बल्कि इस तरह हुई कि इसको सिर्फ एक बुरा इत्तिफाक ही कहा जा सकता है. आतंकवादियों को एक गाङी की जरुरत थी और सामने आ गये हेमंत करकरे इनके साथ एसीपी काम्ते और सालस्कर भी, तीनों एक ही गाङी में. उन्होने ताबङतोङ गोलियां चलायी और इन तीनों को मार के गाडी लेके भाग निकले आतंकी.
दुख ये है कि ये तीन काबिल अफसर सिर्फ इसलिये मर गये की हमारी पुलिस अब भी इतनी संसाधनहीन है कि उनके पास इतने भीषण हमले के समय मे भी ढंग के हथियार नहीं थे. बुलेट प्रूफ़ जैकेट्स ऐसी कि उनको भेद कर करकरे के शरीर मे ३ गोलियां दाखिल हो गयीं. निकम्मे और कब्र में पैर लटकाये नेताओं के पास बुलेट प्रूफ़ गाङियां भी है और गार्ड्स भी. लेकिन मुम्बई ऍ टी एस के चीफ़ और ऍ सी पी एक आतंकवादी की उन गोलियों के शिकार हो गये जो उनको मारने से ज्यादा गाङी हथियाने के लिये चलायी गयी थी. मारने वालों को आम जनता और एक आई पी एस अफसर को मारने मे कोई भी फर्क नही मैहसूस नही हुआ होगा. सिर्फ एक साधारण सी गाङी में बैठे तीन असाधरण सिपाही सिर्फ संसाधनहीनता के कारण मार दिये गये और हमें मजबूर होकर उनहें शहीद कैहना पङता है.
शर्म आती है, दो हफ्ते पैहले चन्द्र्यान की सफलता मे जशन मनाने वाले हिंदुस्तान के सबसे महत्व्पूर्ण शहर की पुलिस सिर्फ १० आतंकियो के सामने लूली लंगङी हो गयी, उनकी एके ४७ और हथगोलों के सामने लाठी और दुनाली बंदूक वाली मुम्बई पुलिस विदूषक जैसी नजर आयी.
अगर आपको पढ के बुरा लगे तो लगे, मेरी नजर में इन तीन जियालों की मौत शहादत से ज्यादा हत्या है, जिसमें पुराने जमाने की घिसी पिटी डंडा छाप पुलिस व्यवस्था भी आतंकवादियो के बराबर की दोषी है.
अगर आपको पढ के बुरा लगे तो लगे, मेरी नजर में इन तीन जियालों की मौत शहादत से ज्यादा हत्या है, जिसमें पुराने जमाने की घिसी पिटी डंडा छाप पुलिस व्यवस्था भी आतंकवादियो के बराबर की दोषी है.
Labels: आतंकवाद, मुम्बई, हेमंत करकरे, हेमंत करकरे की मौत
5 Comments:
हेमंत करकरे इनके साथ एसीपी काम्ते और सालस्कर तीनो आज़ाद मैदान के बाहर के कार में बैठे थे और कार खड़ी थी तीनों बातों में इतने मशगूल थे कि देखा ही नहीं कि कौन उनकी ओर बढ़ रहा है
सही कहा है, "शहादत से ज्यादा हत्या है."
पहले तो यह कि किस प्रोटोकोल के तहत ये तीन अधिकारी एक ही वाहन में आ बैठे -क्या वे मौके की नजाकत को बाप नही पाये ? या फिर अयह समझ बैठे कि आ गया होगा एक और बिहारी सिरफिरा चलो तीनों मिलकर प्वाईंट ब्लैंक से उतार देते हैं साले के भेजे में तीन तीन गोलियाँ !
यह सचमुच अफसोसनाक है -कृपया अपना वोट यहाँ दें -http://mishraarvind.blogspot.com/
रोशन लाल जी पढा आपने ? अफ़लातून जी पढा आपने ?
छोडिये जी आप सेकुलर साम्प्रदायिकता से ग्रस्त जीव है सिवाय संघी कहने या या हमारे भारतईय नागरिक होने [पर अफ़सोस के अलावा कर भी क्या सकते है . हो सके तो सेकुलरता छोदकर भारतीय बनिये इनसान बनिये हिंदू भी मानव होता है समझिये लेकिन लगता नही जब तक चोट आपके पाव पर ना हो आप पाटिल की समझ से बाहर निकल पायेगे जनाब
@ अजीत & अरविन्द ->
अगर तीनों बातों मे मशगूल थे तब तो ये आत्महत्या हो जीती है. और चाहे बातचीत मे मशगूल हो या एक गाङी में तीनो के बैठने की बात हो लापरवाही तो सिद्ध हो ही जाती है.
खैर इन बेचारों को अब क्या कहें, अभी तो टी वी पर दिखा रहे हैं कि देशमुख जी अपने ऐक्टर बेटे और रामू को लेके होटेल ताज पहुंच गये हैं. लापरवाही कहीं न कहीं उस पल में जन्मती है जब आपको अपनी समझ कानून और कायदों से बेहतर लगने लगती है. इसीका नमूना अभी मुख्य मंत्री ने पेश कर दिया रामू को ताज ले जा के.
Good one. Carry on. My best wishes.
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